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तेज़ रफ़्तार, मौत की रफ़्तार: सड़कों पर बढ़ते हादसे और हमारी जिम्मेदारियां

भारत विकास के रास्ते पर तेज़ी से दौड़ रहा है। नए एक्सप्रेस-वे, चौड़ी सड़कों और चमचमाते हाइवे पर फर्राटे भरते वाहन आधुनिक भारत की पहचान बन चुके हैं। लेकिन इस रफ्तार की एक और सच्चाई है—मौत। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जनवरी से जून 2025 के बीच केवल राष्ट्रीय राजमार्गों पर ही 26,770 लोगों की जान जा चुकी है। ये आंकड़े सिर्फ नंबर नहीं, बल्कि हर मौत के पीछे एक परिवार की बर्बादी, एक सपने का अंत और एक समाज की चूक को दर्शाते हैं।

कहाँ चूक हो रही है?
केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने संसद में बताया कि हर साल सड़क दुर्घटनाओं पर एक रिपोर्ट जारी की जाती है, जिसमें साफ देखा जा सकता है कि साल दर साल सड़क हादसे थमने की बजाय बढ़ते जा रहे हैं। 2023 में 53,372 और 2024 में 52,609 मौतें हुईं। यही नहीं, एक्सप्रेस-वे जैसे हाई-स्पीड कॉरिडोर, जिन पर सुरक्षित सफर का दावा किया जाता है, वहां भी हादसे घटने के बजाय बढ़े हैं।

कारण क्या हैं?
    तेज़ रफ्तार — हाईवे और एक्सप्रेस-वे पर ओवरस्पीडिंग आम है। वाहन चालक रफ्तार पर काबू नहीं रख पाते और अचानक सामने आए जानवर, वाहन या पैदल यात्री को देखकर ब्रेक लगाना असंभव हो जाता है।

    शराब पीकर गाड़ी चलाना — नशे में वाहन चलाना आज भी बड़े पैमाने पर हादसों का कारण बना हुआ है। चिंता की बात ये है कि हर 5 किलोमीटर पर 3 शराब दुकानें मिलती हैं, और ये आकंड़ा सिर्फ राजमार्गों का है।

    ग्रामीण सड़कों पर बेकाबू ट्रैफिक — प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत गांव-गांव सड़कें पहुंची हैं, लेकिन उन पर वाहनों की बाढ़ और ट्रैफिक नियंत्रण की गैरमौजूदगी ने हादसों की नई जमीन तैयार कर दी है।

    नाबालिग और अनुभवहीन चालक — छोटे शहरों और गांवों में नियमों की अनदेखी करते हुए नाबालिग बाइकर्स सड़क पर बेलगाम नजर आते हैं। वहीं अनुभवहीन या वृद्ध चालक भी बिना किसी जांच के वाहन चलाते रहते हैं।

    लॉबी का दबाव — कार और दोपहिया निर्माता कंपनियों की लॉबी इतनी मजबूत है कि वाहन उत्पादन पर लगाम लगाना नामुमकिन बन गया है। सड़कों पर वाहनों की संख्या क्षमता से कहीं ज्यादा हो चुकी है।

समस्या का असर
भारत में हर साल सड़क हादसों में करीब डेढ़ लाख लोग मारे जाते हैं, और 4–5 लाख लोग घायल होते हैं, जिनमें अधिकांश युवा होते हैं। इसका सीधा असर देश की मानव संसाधन क्षमता, आर्थिक स्थिरता और पारिवारिक संरचना पर पड़ता है। पीड़ित परिवार पर औसतन 5 लाख रुपए का आर्थिक बोझ पड़ता है, जिसकी भरपाई कई बार सालों तक नहीं हो पाती।

क्या है समाधान?
    सख्त कानून और सख्ती से पालन — जापान, अमेरिका, सिंगापुर जैसे देशों की यातायात आचार संहिता से सीख लेकर भारत को एक यूनिवर्सल रोड एथिक्स कोड अपनाना चाहिए।

    शराब बिक्री पर नियंत्रण — राजमार्गों और ग्रामीण इलाकों में शराब की उपलब्धता पर सख्त पाबंदी लगानी होगी।

वाहन संख्या पर सीमा — देश में वाहन उत्पादन और रजिस्ट्रेशन पर नियंत्रण लाना जरूरी है, वरना सड़कें दम तोड़ देंगी।

इन्फ्रास्ट्रक्चर से ज्यादा अनुशासन जरूरी — हाईवे की चमक से ज्यादा ज़रूरत है उस पर चलने वालों में संयम, जागरूकता और ज़िम्मेदारी की।

पैदल यात्रियों और साइकिल चालकों की सुरक्षा — स्मार्ट सिटी के नाम पर सड़कों से इनका सफाया करना समाधान नहीं है। हर सड़क पर इनकी जगह सुनिश्चित होनी चाहिए।

आज सड़कों पर जो हो रहा है, वो कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि नीतियों, आदतों और व्यवस्था की लापरवाही का नतीजा है। अगर अब भी हम नहीं चेते, तो रफ्तार की ये होड़ हमें कब्र की तरफ धकेल देगी। ज़रूरत है सामूहिक संकल्प की—सरकार, समाज और नागरिकों को मिलकर तय करना होगा कि हमें रफ्तार चाहिए या जीवन। क्योंकि जिंदगी एक ही बार मिलती है, मंज़िल देर से मिले तो भी चलेगा, बशर्ते हम वहां तक ज़िंदा पहुंचें।

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